Articles: गणगौर पूजा सोमवार 31 मार्च 2025 को
तृतीया तिथि प्रारम्भ – 31 मार्च 2025 प्रातः 09:11 बजे से
तृतीया तिथि समाप्त – 01 अप्रैल 2025 प्रात: 05:42 बजे तक
टिप्पणी: सभी समय 12 घण्टा प्रारूप में अजमेर भारत के स्थानीय समय और डी.एस.टी समायोजित (यदि मान्य है) के साथ दर्शाये गए हैं ।
आधी रात के बाद के समय जो आगामि दिन के समय को दर्शाते हैं, आगामि दिन से प्रत्यय कर दर्शाये गए हैं ।
पञ्चाङ्ग में दिन सूर्योदय से शुरू होता है और पूर्व दिन सूर्योदय के साथ ही समाप्त हो जाता है।
2025 गणगौर | गौरी तृतीया
हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार चैत्र माह शुक्ल पक्ष तृतीया को गणगौर के रूप में मनाया जाता है । यह त्यौहार मुख्यतः हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले उतर भारतीय परिवरिओं द्वारा मनाया जाता है।
ब्रज में भी यह त्यौहार अत्यन्त लोकप्रियता से मनाया जाता है ।
गणगौर के नाम में गण का अर्थ भगवान शिव एवं गौर का अर्थ माता पार्वती से है ।
गणगौर के दिन अविवाहित कन्यायें एवं विवाहित स्त्रियाँ भगवान शिवजी एवं माता पार्वती जी की पूजा करती हैं । अनेक क्षेत्रों में भगवान शिव को ईसर जी एवं देवी पार्वती को गौरा माता के रूप में पूजा जाता है । गौरा जी को गवरजा जी के नाम से भी जाना जाता है । धर्मग्रन्थों के अनुसार, पूर्ण श्रद्धाभाव से इस व्रत का पालन करने से अविवाहित कन्याओं को इच्छित वर की प्राप्ति होती है तथा विवाहित स्त्रियों के पति दीर्घायु एवं आरोग्यवान होते हैं ।
गणगौर पूजन में महिलायें बालू अथवा मिट्टी की गौरा जी का निर्माण करके उनका सम्पूर्ण श्रृंगार करती हैं । तत्पश्चात उनका विधि-विधान से पूजन करते हुये लोकगीतों का गायन करती हैं ।
व्रतोत्सवसंग्रह के अनुसार, इस दिन भोजन में मात्र एक समय दुग्ध का पान करके उपवास का पालन करने से स्त्री को पति एवं पुत्रादि का अक्षय सुख प्राप्त होता है ।
इस व्रत की विशेषता है कि इसे पति से छुपाकर किया जाता है। यहाँ तक कि गणगौर पूजा का प्रसाद भी पति को नहीं दिया जाता है । इसके पीछे का कारण जानने के लिये आपको गणगौर व्रत कथा पढ़नी चाहिये।
गणगौर की गतिविधियाँ…,
चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिन महिलायें सोलह श्रृंगार करके व्रत एवं पूजा करती हैं तथा सन्ध्याकाल में गणगौर की व्रत कथा को पढ़ती एवं सुनती हैं । इस दिन को बड़ी गणगौर के नाम से भी जाना जाता है । इस दिन नदी या सरोवर के समीप बालू से निर्मित माता गौरा की मूर्ति को जल पिलाया जाता है । इस पूजन के अगले दिन देवी का विसर्जन किया जाता है । जिस स्थान पर गणगौर पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर या मायका तथा जिस स्थान पर विसर्जन होता है उसे ससुराल माना जाता है ।
गणगौर पूजा के दिन महिलायें मैदा, बेसन अथवा आटे में हल्दी मिलाकर गहने बनाती हैं, जो माता पार्वती को अर्पित किये जाते हैं । इन गहनों को गुने कहा जाता है । मान्यताओं के अनुसार, बड़ी गणगौर के दिन स्त्रियाँ जितने गुने माता पार्वती को अर्पित करती हैं, उतना ही अधिक धन-वैभव कुटुम्ब में प्राप्त होता है । पूजन सम्पन्न होने के उपरान्त महिलायें गुने अपनी सास, ननद, देवरानी या जेठानी को दे देती हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार गुने शब्द गहने शब्द का ही अपभ्रंश हो गया है।
राजस्थान में गणगौर का पर्व 18 दिवसीय उत्सव के रूप में मनाया जाता है । वहाँ गणगौर उत्सव होलिका दहन के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर चैत्र शुक्ल तृतीया को समाप्त होता है । राजस्थान में स्त्रियाँ इस दिन ईसर जी एवं गवरजा जी का पूजन करती हैं । पूजन के दौरान दूब घास से जल छिड़कते हुये “गोर गोर गोमती” नामक पारम्परिक गीत का गायन करती हैं ।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, माता गवरजा होली के दूसरे दिन अपने मायके आती हैं तथा अठारह दिनों के बाद ईसर जी उन्हें पुनः लेने के लिये आते हैं । चैत्र शुक्ल तृतीया को गवरजा जी की विदाई होती है ।
राजस्थान सहित अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में गणगौर की पूजा में गाये जाने वाले लोकगीत इस पर्व का आवश्यक अंग हैं । महिलाओं द्वारा गणगौर के गीतों के माध्यम से माता गवरजा को बड़ी बहन के तथा भगवान ईसर को जीजा जी के रूप में पूजा जाता है । राजस्थान के अनेक क्षेत्रों में विवाह के समय आवश्यक रूप से गणगौर पूजन किया जाता है ।
मध्यप्रदेश स्थित निमाड़ में गणगौर का त्यौहार अत्यधिक विशाल स्तर पर मनाया जाता है। गणगौर उत्सव के समापन पर अन्तिम दिन प्रत्येक गाँव में भण्डारा आयोजित किया जाता है । तदोपरान्त माता गवरजा की ईसर जी के साथ विदाई की जाती है ।
व्रत कथा गणगौर :-
एक समय की बात है भगवान शिव और देवी पार्वती नारद मुनि के साथ पृथ्वी भ्रमण पर आए, उस दिन संयोग से चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी, इस तिथि को गौरी तृतीया के नाम से भी जाना जाता है । जब ग्राम वासियों को पता लगा कि भगवान शिव देवी पार्वती के साथ गांव में पधारे हैं तो गांव की निर्धन महिलाओं के पास जो जल फूल और फल उपलब्ध था लेकर भगवान शिव और देवी पार्वती की सेवा में पहुंचे ।
देवी पार्वती और भगवान शंकर उन निर्धन महिलाओं की सेवा और भक्ति भाव से आनंदित हुए । देवी पार्वती ने उस समय अपने हाथों में जल लेकर उन निर्धन महिलाओं पर सुहाग रस छिड़क दिया । देवी पार्वती ने उन निर्धन महिलाओं से कहा कि तुम सभी का सुहाग अटल रहेगा । उन निर्धन महिलाओं के जाने के बाद उस गांव की धनी महिलाओं की टोली हाथों में विभिन्न प्रकार के पकवान सजाकर शिव पार्वती की सेवा में आईं ।
देवी पार्वती की ओर देखकर भगवान शिव ने कहा कि तुमने तो सारा सुहाग रस निर्धन महिलाओं में बांट दिया है अब इन्हें क्या दोगी । देवी पार्वती ने तब भगवान शंकर की ओर देखकर कहा कि उन निर्धन महिलाओं को मैंने ऊपरी सुहाग रस दिया है । इन धनी महिलाओं को मैं अपने समान सौभाग्य का आशीर्वाद दूंगी । इसके बाद देवी पार्वती ने अपनी एक उंगली को काटकर उससे निकलने वाले रक्त को सभी धनी महिलाओं के ऊपर छिड़क दिया । जिसके ऊपर जैसा रक्त गिरता गया उसे उतना सुहाग मिलता गया । इस तरह देवी पार्वती ने चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को निर्धन और धनी महिलाओं को सुहाग वांटा था ।
इसके बाद देवी पार्वती भगवान शिव से आज्ञा लेकर नदी पर स्नान करने गईं । स्नान के बाद देवी पार्वती ने बालू के ढेर से एक शिवलिंग तैयार किया और उसकी पूजा की । पूजा के बाद देवी पार्वती ने शिवलिंग की प्रदक्षिणा की । इसी समय उस शिवलिंग से शिवजी प्रकट हुए और देवी पार्वती से कहा कि आज के दिन यानी चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन जो भी सुहागन महिलाएं शिव और गौरी पूजा करेगी उसे अटल सुहाग प्राप्त होगा ।
इधर शिवजी की पूजा करते हुए देवी पार्वती को काफी समय हो गया तो वह लौटकर वहां आई जहां पर शिवजी विराजमान थे । देवी पार्वती से भगवान भोलेनाथ ने पूछा कि काफी समय लग गया आने में । देवी पार्वती ने इस पर यह कह दिया कि उन्हें नदी के तट पर भाई और भावज मिल गए थे । उन्होंने दूध भात खिलाया । भगवान शिवजी समझ गए कि देवी पार्वती उन्हें बहला रही हैं । इस पर शिवजी ने भी कहा कि वह देवी पार्वती के भाई भावज से मिलेंगे और दूध भात खाएंगे । शिवजी देवी पार्वती और नारदजी के साथ नदी तट की ओर चल पड़े । देवी पार्वती ने मन ही मन भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना की, हे शिवशंकर मेरी बात कि लाज रखना ।
जब भगवान शिव नदी तट पर पहुंचे तो वहां उन्हें एक महल दिखा । उसमें देवी पार्वती के भाई और भावज थे । कुछ समय तक शिव और पार्वती उस भवन में रहे । फिर देवी पार्वती ने भगवान शिव से कैलास चलने की जिद्द की । लेकिन शिवजी जाना नहीं चाह रहे थे तो देवी पार्वती अकेले ही वहां से विदा हो गई । इस पर भगवान शिव को भी देवी पार्वती के साथ जाना पड़ा । अचानक से भगवान शिव ने कहा कि उनकी तो माला वहीं भवन में रह गई है ।
नारदजी को शिवजी ने माला लेने के लिए भेजा । नारदजी जब नदी तट पर पहुंचे तो वहां न तो भवन था न देवी पार्वती के भाई भावज थे । उन्हें एक पेड़ पर भगवान शिव की माला लटकी मिली । नारदजी माला लेकर शिवजी के पास गए और माला देकर बोले प्रभु यह कैसी माया है जब मैं माला लेने गया तो वहां पर भवन नहीं था । बस जंगल ही जंगल था । एक पेड़ पर माला लटकी मिली । इस पर शिव पार्वती मुस्कुराए और बोले कि यह सब तो देवी पार्वती की माया थी । इस पर देवी पार्वती ने कहा कि यह मेरी नहीं भोलेनाथ की माया थी ।
नारदजी ने कहा कि आप दोनों की माया आप दोनों ही जानें । आप दोनों की जो भक्ति भाव से पूजा करेगा उनका प्रेम भी आप दोनों जैसा बना रहेगा ।