हस्तिनापुर में पाण्डवों के राज्याभिषेक के बाद जब कृष्ण द्वारिका जाने लगे, तो धर्मराज युद्धिष्ठर उनके रथ पर सवार हो कर कुछ दूर तक उन्हें छोड़ने के लिए चले गए…!
भगवान श्रीकृष्ण ने देखा, धर्मराज के मुख पर उदासी ही पसरी हुई थी…!
उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा “क्या हुआ भइया…?”
“क्या आप अब भी खुश नहीं…?”
“प्रसन्न होने का अधिकार तो मैं इस महाभारत युद्ध में हार आया हूँ केशव…!
“मैं तो यह सोच रहा हूँ कि जो हुआ क्या वह ठीक था क्या…?”
युधिष्ठिर का उत्तर अत्यंत मार्मिक था…!
कृष्ण खिलखिला उठे, बोले “क्या हुआ भइया…!”
“यह किस उलझन में पड़ गए आप…?”
“हँस कर टालो मत अनुज…!
मेरी विजय के लिए इस युद्ध में तुमने जो जो कार्य किया है, वह ठीक था क्या…?
पितामह का वध, कर्ण वध, द्रोण वध, यहाँ तक कि अर्जुन की रक्षा के लिए भीमपुत्र घटोत्कच का वध कराना यह सब ठीक था क्या…?
क्या तुम्हें नहीं लगता कि “तुमने अपने ज्येष्ठ भ्राता के मोह में वह किया, जो तुम्हें नहीं करना चाहिए था…?”
धर्मराज बड़े भाई के अधिकार के साथ कठोर प्रश्न कर रहे थे…!
कृष्ण गम्भीर हो गए, बोले “भ्रम में न पड़िये बड़े भइया…!”
यह युद्ध क्या आपके राज्याभिषेक के लिए लड़ा गया था…?
नहीं…!
आप तो इस कालखण्ड के करोड़ों मनुष्यों के बीच एक सामान्य मनुष्य भर हैं, आप स्वयं को राजा मान कर सोचें, तब भी इस समय संसार में असंख्य राजा हैं और असंख्य आगे भी होंगे…!
“इस भीड़ में आप बहुत छोटी इकाई हैं धर्मराज मैं आपके लिए कोई युद्ध क्यों लड़ूंगा…?”
युधिष्ठिर आश्चर्य में डूब गए, धीमे स्वर में बोले, फिर…?
फिर यह महाभारत क्यों हुआ…?
“यह युद्ध आपकी स्थापना के लिए नहीं, धर्म की स्थापना के लिए हुआ है, यह भविष्य को ध्यान में रखते हुए जीवन-संग्राम के नए नियमों की स्थापना के लिए हुआ है, महाभारत हुआ है ताकि भविष्य का भारत सीख सके कि विजय ही धर्म है, वो चाहे जिस प्रयत्न से मिले, यह अंतिम धर्मयुद्ध है धर्मराज…!
क्योंकि यह अंतिम युद्ध है जो धर्म की छाया में हुआ है, भारतीय समाज को इसके बाद उन बर्बरों का आक्रमण सहना होगा जो केवल सैनिकों पर ही नहीं बल्कि निर्दोष नागरिकों, स्त्रियों, बच्चों, यहाँ तक कि सभ्यता और संस्कृति पर भी प्रहार करेंगे…!
उन युद्धों में यदि भारतीय समाज सनातन धर्म सत्य-असत्य, उचित-अनुचित के भ्रम में पड़ कर कमजोर पड़ा और पराजित हुआ तो उसका दण्ड समूचे समाज को संस्कृति को युगों युगों तक भोगना पड़ेगा …!
आश्चर्यचकित युद्धिष्ठर चुपचाप कृष्ण को देखते रहे, उन्होंने फिर कहा “प्रत्येक समाज को अपने बच्चों में विजय की भूख भरनी होगी धर्मराज…!
यही मानवता और धर्म की रक्षा का एकमात्र विकल्प है,इस सृष्टि में एक आर्य परम्परा सनातन सँस्कृति ही है, जो समस्त प्राणियों पर दया करना जानती है, यदि वह समाप्त हो गयी तो न निर्बलों की प्रतिष्ठा बचेगी न प्राण बचेंगे…!
संसार की अन्य मानव जातियों के पास न धर्म है न दया, वे केवल और केवल दु:ख देना जानते हैं, ऐसे में भारत को अपना हर युद्ध जीतना होगा, वही धर्म की विजय होगी…!
युद्धिष्ठिर जड़ हो गए थे…!
कृष्ण ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा “मनुष्य अपने समय की घटनाओं का माध्यम भर होता है भइया, वह कर्ता नहीं होता, भूल जाइए कि किसने क्या किया, आप बस इतना स्मरण रखिये कि इस कालखण्ड के लिए समय ने आपको हस्तिनापुर का महाराज चुना है और आपको इस कर्तव्य का निर्वहन करना है, यही आपके हिस्से का अंतिम सत्य है…!”
युधिष्ठिर के रथ से उतरने का स्थान आ गया था, वे अपने अनुज कृष्ण को गले लगा कर उतर आए…!
कृष्ण के सामने अभी अनेक लीलाओं का मंच सजा था…!
आज ये युद्धिष्ठर और कोई नहीं भारतीय समाज है, जो नपुंसक हो गया है, “भाई चारा की बीमारी से ग्रस्त”…!
कृष्ण की भांति किसी न किसी को तो ये लड़ाई धर्म स्थापना के लिए, अनैतिकता के खिलाफ, असंवैधानिक गतिविधियों के विरोध में लड़नी पड़ेगी, कृष्ण भगवान केवल रास्ता दिखा सकते है, शस्त्र हम में से ही किसी न किसी को खुद उठाने होंगे…!
वर्तमान में सत्ता के बाहर नैतिकता केवल किताबों में अच्छी लगती है, नैतिकता का पालन सत्ता में होने से ही एक सदृढ़ और मजबूत समाज का राष्ट्र का निर्माण होता है…!
इस प्रसंग में श्री कृष्ण की चेतावनी को समझें और चिंतन करें कि हम कहाँ खडे हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए
और सनातन के लिए
हमारा कर्तव्य क्या है …?
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वर्तमान समय में देखा जाये तो प्रत्येक समाज में जो भी विरोध है या हमारे अपने समाज में जिस तरह का विरोध हैं वो कोई पद या प्रतिष्ठा का विरोध नही हैं …!
बल्कि संवैधानिक रूप से न चल कर अनैतिक रूप से जो अनीति हो रही हैं उसका विरोध हैं, अपनी गलतियों को छुपाने के लिए अन्य संगठनों पर छींटाकशी करना, स्वयँ का हिसाब न देना मगर अन्य संगठनों से हिसाब पूछना, खुलेआम गुंडागर्दी गाली-गलौज करना, समाज बँधुओं को नित नये नम्बरों से धमकाना उचित तो नही हो सकता, इसका विरोध करना धर्मयुद्ध ही तो हैं…!
जब तक किसी भी समाज में धृतराष्ट्र रूपी नेता, दुर्योधन रूपी सत्ता के लोभियों का समर्थन करेंगे, भीष्मपितामह जैसे लोग वचनबद्ध रहते हुए द्रोपदी चीर हरण देखते रहेंगे, शकुनि जैसे सलाहकार उकसाते रहेंगे, तब तक न विदुर की चलेगी और न ही किसी समाज का उत्थान होगा …!👏
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सिखवाल समाचार