ARTICLES: एक ब्राहमण लेखक द्वारा ब्राह्मणों पे धारदार लिखा गया है, ब्राह्मण होकर भी अपनी स्वाजाति की कमियों पे लिखना साहस का काम है, यही भारतीय मनीषा है, हम मज़हबी लोग नहीं हैं, आत्मचिंतन करना और उसे सुधारना हमारा दायित्व भी है…!
ब्राह्मण…!
शिखा सूत्र छूट गया । विधि निषेध छूट गया । संध्या गायत्री छूट गया । वेदाध्ययन गया, संस्कार गए, सारी परंपराएं गयीं, बचा है तो एक अधूरा विशिष्टताबोध, जिसका कोई कारण नहीं । कभी सोचे हैं, क्या करेंगे यह विशिष्टताबोध लेकर…?
जिस गाँव में ब्राह्मणों के सौ घर हैं, वहाँ संस्कृत पढ़ने वाला एक बालक नहीं । आपका बच्चा एक्स्ट्रा सब्जेक्ट में फ्रेंच और जर्मन तो पढ़ता है, पर संस्कृत नहीं पढ़ता । फिर काहे के ब्राह्मण और काहे का ब्राह्मणत्व मित्र…?
कितने युवक हैं जो अपना गोत्र, प्रवर, वेद, उपवेद, छंद आदि बता पाएंगे…?
स्वयं से ही पूछिये, सत्ताईस नक्षत्रों के नाम याद हैं…?
बिना अटके बारह राशियों का नाम बता पाएंगे…?
सम्भव है कि कुछ बारह महीनों के हिन्दी नाम तक न बता सकें…?
यह सब पिछले बीस साल में समाप्त हुआ है । यहाँ तक कि धोती बांधना तक नहीं आता और दावा यह कि हम देवता हैं, क्या मूल्य है इस दावे का मित्र…?
हमारे गुरुजी कहते थे, “यात्रा के समय बिना तिलक का ब्राह्मण दिख जाय तो अपशकुन होता है, बिना तिलक के ब्राह्मण से बड़ा चांडाल कोई नहीं…!”
कितने ब्राह्मण युवक नित्य तिलक लगाते हैं…?
शराब पीना आम हो ही गया है, मांसाहार सहज हो ही गया है, शायद बुरा लगेगा, किंतु इंस्टा पर मुजरा करने वाली नायिकाओं में सबसे अधिक आपके आंगन से निकली हैं, बौद्धिक कहलाने के लोभ में धर्मविरुद्ध बोलने, लिखने वाले आपके युवक हैं और इसके बाद भी हम अहंकार में हैं कि हम श्रेष्ठ हैं…? क्या सचमुच हैं…?
जातीय अस्मिता, जातीय एकता, स्वजातीय बंधुओ का हित चिंतन, सुनने में अच्छा लगेगा, किंतु जब धर्म की डोर ही हाथ से छूट जाय तो उस एकता का क्या करेंगे…?
तब जाति का मूल्य केवल अपने स्वजातीय उम्मीदवार को वोट करने तक रह जायेगा दोस्त, और आजकल तो विघ्नसंतोषी लोग उसमें भी फुट डालों और राज करों की नीति से समाज को तोड़ने में लगे हुए हैं, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए रोजगार पर रखे हुए गुर्गों से झूठ बुलवाना समाज को लडवाना और अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं…!
यह ब्राह्मण समाज के लिए तो ठीक नहीं है न कम से कम…!
इतना तो आप समझते ही होंगे कि चंद चरित्रहीन लोगों के कारण ब्राहमण समाज वाले अपना सम्मान खो चुके हैं, दरअसल सम्मान तब मिला था जब आप भौतिक सुविधाओं का लोभ त्याग कर धर्म और सामाजिक हित में लगे थे, अब भौतिक संसाधनों का मोह कुछ लोगों को अन्य से अधिक ही है, तो विशेष सम्मान क्यों ही मिलेगा…?
यदि कोई दे रहा है तो यकीन जानिये, वह अपने मन में बैठी अपनी पुरानतन परम्पराओं का तथा बुजुर्गों द्वारा प्राप्त हुए संस्कारों का निर्वाह कर रहा है, ब्राहमण समाज का नहीं…!
साभार: सोशल मीडिया (लेखक का उद्धेश्य किसी की भावनाओं को आहात करना नहीं, बल्कि समाज को जागृत करना हैं, कृपया इसे अन्यथा न लें…!)