राजस्थानी भाषा में एक बहुत ही प्यारी कहावत हैं कि “गाय मार कर गंगा जी गया, पाछा आर मार दी कुत्ती, बात तो उत्ती री उत्ती” याने गाय को मारने का पाप धोने के लिए गंगा जी गये और वापसी में आते-आते कुत्ती को मार दिया, राष्ट्रीय शोक की घोषणाओं की चिताओं का दाह-संस्कार भी नही हुआ और राष्ट्रीय घोषणाओं के बधाई संदेश शुरू हो गये…!

समाज में विघटनकारी नीति का इससे बेहतर प्रमाण क्या हो सकता हैं कि उससे ठीक दो दिन पहले दो युवाओं के आकस्मिक निधन पर कोई शोक नही था, लेकिन अचानक राष्ट्रीय शोक की लहर उठी और शाम होते-होते ठंडी हो गयी…!
धनाढ्य परिवारों के घर मृत्यु संबंधित कारज पर साफे पहनाए जाना और अन्य समाज के कारज पर ही नही जाना यह सामाजिक भेदभाव विघटन की ही परिभाषा नही हैं तो और क्या है…?
ऐसे भेदभाव किसी भी सामाजिक पदाधिकारी के लिए शोभायमान तो नही हो सकतें…!👏
सभी से निवेदन हैं कि कोई अन्यथा न ले पर ऐसी सामाजिक व्यवस्था में बदलाव लाने की आवश्यकता पर मंथन अवश्य करें, किसी की भावनाओं को आहत करना हमारा उद्धेश्य नही हैं, हमारीं मंशा समाज को जागृत करना हैं…!👏