‼ श्रीर्जयति ‼
ह्र्दय विचार
श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्य
अर्थस्य नाशो यस्य स्यात् स्वार्थे नष्टस्य चेतसः ।
नश्यति प्रज्ञा नश्यति श्रीर्नश्यति नाशयति कुलम् ।।
जिसके कारण समाज की संपत्ति का नाश होता है, उसका अपना चित्त भी नष्ट हो जाता है, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है उसकी समृद्धि नष्ट हो जाती है और अंत में उसका कुल भी नष्ट हो जाता है, समाज की संपत्तियों का हरण करना न केवल अनैतिक है, बल्कि यह हमारे अपने जीवन और हमारे परिवार के लिए भी हानिकारक हो सकता है, हमें यह समझना चाहिए कि समाज की संपत्तियों का सम्मान करना और उनका संरक्षण करना हमारी जिम्मेदारी है।
‼ श्रीर्जयति ‼
ह्र्दय विचार
श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या:
भूतेशं प्रस्थापयत स्वात्मनिन्दां करोति सः ।।
परनिन्दा विनाशाय स्वनिन्दा यशसे परम् ।।
दूसरों की निन्दा विनाश और अपनी निंदा यश का कारण होती है, धैर्य में बड़ी शक्ति है, सूर्य भी बड़े धैर्य से प्रकाश देते हैं, वायु भी बड़े धैर्य से चलती है, माँ गङ्गा का वेग भी बड़े धैर्य से गतिमान होता है, आयुर्वेदिक औषधि भी बड़े धैर्य से रोगों का शमन करतीं हैं, सदा मनुष्य को धैर्य धारण करना चाहिये, क्योंकि वह प्रतिपल, प्रतिक्षण वृद्धिक्रम को ही प्राप्त कर रहा है, उसकी योग्यता प्रतिक्षण बढ़ रही है, जीवन में उदास मत होना, निराश मत होना, जीवन प्रत्येक क्षण हमें कुछ न कुछ दे रहा है…!
‼ श्रीर्जयति ‼
ह्र्दय विचार
शनैर्व्विद्या शनैः कन्था शनैः पर्व्वतमारुहेत् ।
शनैः कामश्च धर्म्मश्च पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥
कोई भी मार्ग धीरे धीरे कटता है, कपड़ा धीरे-धीरे बुना जाता है, पर्वत धीरे-धीरे चढा जाता है, विद्या व धन भी धीरे-धीरे प्राप्त होते हैं। ये पाँचों धीरे-धीरे ही प्राप्त होते हैं, इनको प्राप्त करने के लिए धैर्य होना चाहिए, सदैव स्मरण रखिए कि जीवन में धैर्य वह ब्रम्हास्त्र है, जो परिस्थिति कैसी भी हो आपको विचलित नहीं होने देता…!
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ह्र्दय विचार
श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या:
यथा काष्ठं काष्ठगतं पूरे स्याच्च वियुज्यते ।
तद्वज्जन्तुर्वियोगं च योगं च प्राप्नुतेऽवशः ॥
जिस प्रकार जलप्रवाह में बहते हुए दो काष्ठ कभी जुड़ जाते हैं, तो कभी अलग हो जाते हैं, वैसे ही (प्रारब्ध के कारण) विवश हुआ प्राणी (दूसरे प्राणी के साथ) कभी संयोग तो कभी वियोग प्राप्त करता है, आप जैसे जीना चाहते हैं जियें, इसमें कोई बुराई नहीं है, बुराई इस बात में है कि दूसरों पर दबाव डालना कि वे भी आपकी तरह ही जियें, निःस्वार्थता दूसरों के जीवन को अपने हाल पर छोड़ देना है, उनके जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना है, स्वार्थ सदैव अपने चारों ओर एकरूपता पैदा करने का लक्ष्य रखता है, निःस्वार्थता अनंत प्रकार की विविधता को एक सुखद वस्तु के रूप में पहचानती है, उसे स्वीकार करती है, उसमें सहमत होती है, उसका आनंद लेती है, अपने लिए सोचना स्वार्थी नहीं है, जो व्यक्ति अपने लिए नहीं सोचता, वह बिल्कुल भी नहीं सोचता, अपने पड़ोसी से यह अपेक्षा करना कि वह भी उसी तरह सोचे और वही राय रखे, घोर स्वार्थी है, उसे ऐसा क्यों करना चाहिए…?
यदि वह सोच सकता है, तो वह शायद अलग तरह से सोचेगा, यदि वह नहीं सोच सकता, तो उससे किसी भी तरह के विचार की अपेक्षा करना राक्षसी है, जैसे कि एक लाल गुलाब स्वार्थी नहीं है, क्योंकि वह लाल गुलाब बनना चाहता है, यह बहुत ही स्वार्थी होगा, यदि वह चाहता है कि बगीचे के सभी अन्य फूल लाल और गुलाब दोनों हों…!
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श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या:
मनो धावति सर्वत्र मदोन्मत्तगजेन्द्रवत् ।
ज्ञानाङ्कुशसमा बुद्धि: तस्य नो चलते मनः।।
उन्मत्त हाथी की तरह मन सर्वत्र दौड़ता है, किन्तु ज्ञान रुपी अंकुश के समान जिस की बुद्धि है, उसका मन बिचलित नहीं होता है, भारी बोझ के साथ चढ़ना भी मुश्किल है और उतरना भी मुश्किल है, इसलिए जीवन में चिंताओं और इच्छाओं के बोझ से हमेशा मुक्त रहें, हमें ईश्वर का हाथ थामने के बजाय अपना हाथ ईश्वर को थमा देना चाहिए, क्योंकि हमसे ईश्वर का हाथ छूट भी सकता है, हम छोड़ सकते हैं, परंतु यदि ईश्वर ने हमारा हाथ एक बार थाम लिया तो वह अनंत काल तक हमारा साथ निभाएंगे…!
‼ श्रीर्जयति ‼
ह्र्दय विचार
श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या:
अतिवादांश्च तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ।।
परोक्त अनुचित वचनों को सहन करे, किसी का अपमान न करे तथा इस नश्वर शरीर के सुखों के लिए किसी के साथ शत्रुता न करे, दु:ख का मूल कारण प्रकृति पुरुष या परमात्मा नहीं हैं, दु:ख का मूल कारण मनुष्य का असत् दृष्टि कोण है, जिस कारण वह सदैव दु:ख रुप बीज बोता है तो उत्पन्न फसल अर्थात फल भला सुख रुप कैसे हो सकता है…?
इस जगत में सभी जीव विशेषकर मनुष्य रुपी जीव सदैव एैश्वर्य-सुख व आनंद की ही कामना करते हैं, कोई भी मनुष्य दरिद्रता दु:ख व पीडा़ की कामना नहीं करता, सभी चाहते हैं कि लोग हमसे प्रेम करें, लोग हमारा सम्मान करें, लोग हमें धार्मिक व सत्यवादी माने और एक आदर्श एवं समाज के लिए प्रेरणादायी स्त्री या पुरुष कहें, किन्तु यह जानकर आप सबको आश्चर्य होगा के यह सुख, यह आनंद, यह प्रेम, सम्मान, धर्म, सत्य और आदर्श आदि की उपाधियाँ एवं भाव प्राप्त कैसे होता है…?
यह कुछेक बिरले मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी ज्ञात नहीं, किन्तु इससे भी बडा़ आश्चर्य तो यह है कि बताये जाने पर भी लोग वही कर्म करते हैं, जिससे उपरोक्त उपाधियाँ व भाव प्राप्त होने के स्थान पर उन्हें उसके विपरीत कलंकित व दानवीय उपाधियाँ व अभाव ही प्राप्त होते हैं, जिसे दु:ख, कष्ट, पीडा़, अपमान, अधर्म, हानि, घृणा, असत्य, द्वैष, अभाव, क्रोध, लोभ, मोह, मद्, मत्सर, काम, अहँकार,दरिद्रता अर्थात निर्धनता और निम्न श्रेणी का पाप आदि कहते हैं…!
इस जगत में सभी लोगों को जो वस्तु या शक्ति चाहिए, लोग कर्म सदैव उसके विपरीत करते हैं, जैसे सत्य से, धर्म से किसी को प्रेम नहीं है पर सभी संसारी लोग सत्य व धर्म के समान संसार से न्याय प्राप्त करने की अपेक्षा करते हैं, धर्म व सभ्यता युक्त समाज तो सभी मनुष्य चाहते हैं परन्तु अधिकतर मनुष्य यह चाह औरों से करते हैं, अर्थात वे स्वयं धार्मिक व सभ्य मनुष्य नहीं बनना चाहते परन्तु औरों को धार्मिक व सभ्य देखना चाहते हैं…!
सभी सुख, आनंद, एैश्वर्य, ठाठबाट से सम्पन्न एवं समृद्ध रहना चाहते हैं पर कर्म सदैव दु:ख, कष्ट, पीडा़ उत्पन्न करने वाले ही करते हैं, जिससे दरिद्रता, अभाव और अधर्मी, कूकर्मी और विधर्मी दानवों के समान सदैव दु:खी, पीडित, अभावग्रस्त, एवं दरिद्र बने रहते हैं…!
सभी के सद्कर्म और भगवद्नाम स्मरण सहायक हों, प्रभु श्रीजी महाराज आपका सर्वमङ्गल करें।
꧁!! जय श्रीजी की !!꧂
꧁!! जय शिवशम्भु !!꧂
साभार: फेसबुक